Connect with us

गंगोत्री की जलकथा बदल रही है: बर्फ़ घट रही, बारिश बढ़ रही

उत्तराखंड

गंगोत्री की जलकथा बदल रही है: बर्फ़ घट रही, बारिश बढ़ रही

उत्तराखंड की ऊँचाइयों में बसी गंगोत्री घाटी, जहाँ से गंगा की धारा जन्म लेती है, देश के करोड़ों लोगों की आस्था और ज़िंदगी का आधार है। सदियों से यहाँ की बर्फ़ और ग्लेशियर का पिघलता पानी मैदानों तक पहुँचकर खेतों को सींचता रहा, बिजलीघरों को चलाता रहा और गंगा की धारा को जीवन देता रहा। लेकिन अब इस कहानी का रंग बदल रहा है।

आईआईटी इंदौर के वैज्ञानिकों ने गंगोत्री ग्लेशियर सिस्टम के पानी के बहाव को पिछले 40 सालों (1980 से 2020) तक बारीकी से समझने की कोशिश की। इसके लिए उन्होंने एक हाई-रेज़ोल्यूशन मॉडल (SPHY) का इस्तेमाल किया, जिसे उन्होंने मैदान में मापे गए डिस्चार्ज रिकॉर्ड, सैटेलाइट से मिले ग्लेशियर के वजन और बर्फ़ के फैलाव के नक्शों के साथ मिलाकर तैयार किया।

यह भी पढ़ें 👉  उत्तराखंड में बढ़ रहा तीर्थाटन का दायरा चारों धाम के साथ ही अन्य मंदिरों में भी पहुंच रहे हैं श्रद्धालु

नतीजा साफ़ है। गंगोत्री से निकलने वाले पानी का ज़्यादातर हिस्सा अब भी बर्फ़ के पिघलने से आता है, लेकिन इसकी हिस्सेदारी धीरे-धीरे घट रही है।

कुल वार्षिक बहाव में 64% हिस्सा बर्फ़ पिघलने से आता है,
21% ग्लेशियर पिघलने से,
11% बारिश से,
और 4% ज़मीन के भीतर के बहाव (बेसफ़्लो) से।

यानी गंगोत्री की जलधारा अब भी बर्फ़ पर सबसे ज़्यादा निर्भर है। लेकिन अगर इन चार दशकों का ट्रेंड देखें, तो तस्वीर बदलती नज़र आती है, बर्फ़ से मिलने वाला पानी घट रहा है और बारिश व बेसफ़्लो की हिस्सेदारी बढ़ रही है।

इतना ही नहीं, 1990 के बाद एक और बड़ा बदलाव हुआ। पहले गंगोत्री से निकलने वाले पानी का चरम बहाव अगस्त में आता था, लेकिन अब यह जुलाई में ही देखने को मिलता है। वजह है सर्दियों में बर्फ़बारी कम होना और गर्मियों में बर्फ़ जल्दी पिघल जाना।

यह भी पढ़ें 👉  होंडा मोटरसाइकल एंड स्कूटर इंडिया ने बेंगलुरु में अपना पहला ईवी कॉन्सेप्ट स्टोर खोला

इस अध्ययन की मुख्य लेखिका पारुल विन्ज़े, जो आईआईटी इंदौर की शोध छात्रा हैं, कहती हैं, “चार दशकों का डेटा हमें साफ़ दिखाता है कि गंगोत्री का जल बहाव बदल रहा है। अब बर्फ़ के पिघलने पर कम, और बारिश पर ज़्यादा निर्भरता बढ़ रही है।”

इस शोध का मार्गदर्शन करने वाले डॉ. मोहम्मद फ़ारूक़ आज़म, जो आईसीआईएमओडी से जुड़े हैं और आईआईटी इंदौर में एसोसिएट प्रोफ़ेसर भी रहे हैं, मानते हैं कि यह बदलाव छोटे नहीं, बल्कि बड़े असर डाल सकते हैं। वे कहते हैं, “ऊँचाई वाले इलाक़ों में खेती और हाइड्रोपावर सीधे-सीधे पिघलते पानी पर निर्भर हैं। अगर बहाव का समय और मात्रा बदलती है, तो इसका असर बिजली उत्पादन से लेकर सिंचाई तक पर पड़ेगा।”

यह भी पढ़ें 👉  आज 05 बालिकाएं बनी नंदा-सुनंदा, अब तक 38 बालिकाओं की शिक्षा प्रोजेक्ट ‘‘नंदा-सुनंदा’’ से पुनर्जीवित

पहले भी गंगोत्री और हिमालय के पानी पर कई अध्ययन हुए हैं, लेकिन वे छोटे समय या सीमित डेटा पर आधारित थे। यह शोध 41 साल का रिकॉर्ड लेकर आया है, जिसमें ज़्यादा गहराई और बारीकी से विश्लेषण किया गया है। यही वजह है कि यह हमें गंगोत्री घाटी की असल जलकथा का सबसे स्पष्ट चित्र देता है।

गंगा का मैदानी इलाक़ा भले बारिश पर ज़्यादा निर्भर हो, लेकिन गंगोत्री जैसी ऊँचाई वाली जगहों में आज भी बर्फ़ और ग्लेशियर का पिघलना ही जीवनरेखा है। और जब यही जीवनरेखा बदलने लगे, तो इसका असर सिर्फ़ विज्ञान की रिपोर्ट तक सीमित नहीं रहता, यह गाँवों के खेतों, बिजलीघरों और करोड़ों आस्थावानों की धड़कनों तक पहुँचता है।

Continue Reading
Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

More in उत्तराखंड

उत्तराखंड

उत्तराखंड

ट्रेंडिंग खबरें

To Top